महाबोधि महाविहार, बुद्धगया का इतिहास

एक विस्तृत और कालानुक्रमिक वर्णन

  • आज यह स्थल बौद्ध धर्म का एक पवित्र केंद्र बना हुआ है और अपनी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक समृद्धि के कारण विश्व भर से तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है..
  • यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल होने के बाद इसकी वैश्विक पहचान और भी बढ़ गई है..

महाबोधि महाविहार, बुद्धगया, बौद्ध धर्म का एक प्रमुख तीर्थस्थल है, जहाँ भगवान बुद्ध ने बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया था। 

इसका इतिहास हजारों वर्षों में फैला हुआ है और इसमें विभिन्न सभ्यताओं, शासकों, और धार्मिक आंदोलनों का योगदान शामिल है। 

यहाँ प्रस्तुत विस्तृत वर्णन प्राचीन काल से वर्तमान तक की महत्वपूर्ण घटनाओं को कालानुक्रमिक क्रम में समेटता है, जिसमें इसके निर्माण, विकास, विनाश, और पुनर्स्थापना के बिंदु शामिल हैं। इसमें विशेष रूप से राजा पूर्ण वर्मा, जिनका योगदान महाविहार के संरक्षण में महत्वपूर्ण था। जिसके माध्यम से महाविहार की ऐतिहासिक यात्रा को आसानी से समझा जा सके।

प्राचीन काल (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व - दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व)

तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व

सम्राट अशोक का योगदान (269-232 ईसा पूर्व):

सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध (261 ईसा पूर्व) के बाद बौद्ध धर्म अपनाया और अपने शासन के 10वें वर्ष में आचार्य उपगुप्त के साथ बुद्धगया की यात्रा की। उन्होंने बोधि वृक्ष के पास एक छोटा विहार, चैत्य, और स्तूप बनवाया, जो महाबोधि महाविहार का प्रारंभिक आधार बना।

अशोक ने बोधि वृक्ष की रक्षा के लिए एक पत्थर की वेदिका का निर्माण कराया, जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। यह वेदिका तीर्थयात्रियों के लिए परिक्रमा पथ के रूप में भी कार्य करती थी और बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए एक संगठित तीर्थस्थल की स्थापना का प्रतीक थी।

परंपरा के अनुसार, अशोक की पुत्री संघमित्रा ने मूल बोधि वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका ले जाकर अनुराधापुर में रोपी। यह वृक्ष आज भी वहाँ मौजूद है और इसे दुनिया का सबसे पुराना जीवित मानव-रोपित वृक्ष माना जाता है।

दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व

इंडो-सीथियन प्रभाव:

मेजर जनरल सर अलेक्जेंडर कनिंघम के अनुसार, दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इंडो-सीथियन सम्राटों ने अशोक द्वारा स्थापित चैत्य के स्थान पर एक भव्य महाविहार का निर्माण करवाया। इस दौरान मंदिर को विशाल रूप दिया गया और बौद्ध वास्तुकला की विशेषताएँ, जैसे कि स्तूप, चैत्य, और विहार, इसमें शामिल की गईं।

इस काल में महाविहार में बुद्ध की मूर्तियों और अन्य संरचनाओं का निर्माण हुआ, जिसने इसे एक प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मध्यकाल (5वीं शताब्दी - 13वीं शताब्दी)

5वीं शताब्दी

गुप्त साम्राज्य का योगदान (4वीं-6वीं शताब्दी):

गुप्त काल में महाविहार का व्यापक विस्तार हुआ। इस दौरान गुप्त कला और वास्तुकला की छाप महाविहार की संरचनाओं में स्पष्ट दिखाई देती है, जैसे कि बारीक नक्काशी, बुद्ध और बोधिसत्व की मूर्तियाँ, और स्तंभों पर उकेरे गए शिलालेख।

490 ईस्वी: श्रीलंका के सम्राट ने अनुराधापुर में महास्तूप के निर्माण के लिए एक समारोह आयोजित किया। इसमें शामिल होने के लिए भिक्षु चित्रगुप्त के नेतृत्व में 30,000 बौद्ध भिक्षु बुद्धगया से श्रीलंका गए। यह घटना महाविहार के अंतरराष्ट्रीय महत्व और उस समय के बौद्ध समुदायों के बीच घनिष्ठ संबंधों को दर्शाती है।

7वीं शताब्दी

ह्वेनसांग का वर्णन (633 ईस्वी):

चीनी यात्री और भिक्षु ह्वेनसांग ने महाविहार का दौरा किया और इसके वैभव का विस्तृत वर्णन छोड़ा। उन्होंने 170 फीट ऊँचे मंदिर, बोधि वृक्ष, सोने-चाँदी से अलंकृत संरचनाओं, रत्नजड़ित द्वारों, और मैत्रेय तथा अवलोकितेश्वर की चाँदी की मूर्तियों का उल्लेख किया। उनके अनुसार, यहाँ सैकड़ों भिक्षु निवास करते थे और मंदिर शीर्ष सोने के आमलक से सुशोभित था।

हर्षवर्धन का शासन (606-647 ईस्वी):

गौड़ देश (वर्तमान बंगाल और बिहार) के शैव राजा शशांक ने बौद्ध धर्म के खिलाफ अभियान चलाया। उसने बोधि वृक्ष को काटने, जड़ों को जलाने, और महाविहार को नष्ट करने की कोशिश की, लेकिन मुख्य बुद्ध प्रतिमा को नुकसान नहीं पहुँचा सका।

राजा पूर्ण वर्मा का योगदान: इस संदर्भ में, श्रीलंका के राजा पूर्ण वर्मा (कभी-कभी पूरण वर्मा के रूप में उल्लिखित) ने शशांक के विनाशकारी प्रयासों के बाद बोधि वृक्ष को पुनर्जनन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ह्वेनसांग के अनुसार, पूर्ण वर्मा ने अनुराधापुर से बोधि वृक्ष की एक शाखा बुद्धगया में लाकर पुनर्स्थापित की और इसकी सुरक्षा के लिए एक ऊँची पत्थर की दीवार बनवाई। यह वृक्ष आज भी महाविहार में मौजूद है और इसे बौद्धों के लिए अत्यंत पवित्र माना जाता है। पूर्ण वर्मा का यह प्रयास उस समय बौद्ध धर्म की रक्षा और महाविहार की पवित्रता को बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण कदम था, जब भारत में बौद्ध धर्म पर संकट मंडरा रहा था।

इत्सिंग का दौरा (680 ईस्वी):

चीनी भिक्षु इत्सिंग ने महाविहार का दौरा किया और इसे ह्वेनसांग के वर्णन के समान भव्य पाया। उनके लेखों से पता चलता है कि इस समय तक महाविहार एक सक्रिय बौद्ध केंद्र था, जहाँ धार्मिक और शैक्षिक गतिविधियाँ चलती थीं।

10वीं-11वीं शताब्दी

पाल वंश का संरक्षण:

पाल राजाओं ने, जो बौद्ध धर्म के प्रबल समर्थक थे, महाविहार का जीर्णोद्धार करवाया। इस दौरान नई बुद्ध प्रतिमाओं की स्थापना की गई और मंदिर को और भव्य बनाया गया। पाल काल में महाविहार बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र बना।

बर्मा का योगदान:

10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच बर्मा के विभिन्न प्रांतों के राजाओं ने महाविहार के पुनर्निर्माण और रखरखाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस काल में मंदिर को फिर से भव्यता प्राप्त हुई और बर्मा के बौद्धों ने इसे एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में संरक्षित किया।

13वीं शताब्दी

तुर्की आक्रमण और विनाश:

13वीं शताब्दी में तुर्की मुस्लिम आक्रमणकारियों, विशेष रूप से बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में, ने महाविहार को भारी नुकसान पहुँचाया। मंदिर को लूटा गया, कई संरचनाएँ ध्वस्त कर दी गईं, और यहाँ का भिक्षु समुदाय तितर-बितर हो गया।

भिक्षुओं ने मुख्य बुद्ध प्रतिमा की रक्षा के लिए दरवाजे को ईंटों से बंद कर प्लास्टर किया और बाहर शिव की मूर्ति बनाई, ताकि आक्रमणकारी इसे हिंदू मंदिर समझकर छोड़ दें। यह चतुर रणनीति सफल रही और प्रतिमा को बचाया जा सका।

धम्मस्वामी का वर्णन (1234 ईस्वी):

तिब्बती भिक्षु धम्मस्वामी ने लिखा कि आक्रमण के बाद केवल चार भिक्षु बचे थे। महाविहार जंगल में दफन हो गया और कई शताब्दियों तक उपेक्षित रहा। इस दौरान यहाँ की संरचनाएँ खंडहर में बदल गईं।

बर्मा का पुनर्जनन प्रयास:

13वीं शताब्दी के अंत में बर्मा के बौद्धों ने महाविहार के टूटे हिस्सों की मरम्मत करवाई और इसके रखरखाव के लिए दान दिया। इससे महाविहार को कुछ हद तक पुनर्जनन मिला, हालाँकि यह पूर्ण रूप से बहाल नहीं हो सका।

मध्यकाल से आधुनिक काल तक (16वीं शताब्दी - 19वीं शताब्दी)

16वीं शताब्दी

शैव संन्यासियों का प्रभाव (1590 ईस्वी):

शैव संन्यासी घमंडगिरी ने बुद्धगया में अस्थायी कब्जा किया और महाविहार के पास एक छोटा मठ बनवाया। यह महंत परंपरा की शुरुआत थी, जिसने बाद में मंदिर पर अधिकार का दावा किया और इसे अपने नियंत्रण में ले लिया।

18वीं शताब्दी

महंत का अतिक्रमण:

घमंडगिरी के उत्तराधिकारी लालगिरी ने दिल्ली के मुस्लिम शासक से मस्तीपुर और ताराडीह गाँव अनुदान में प्राप्त किए। हालाँकि, महंत ने महाविहार पर सीधा अधिकार नहीं लिया, लेकिन धीरे-धीरे अतिक्रमण शुरू किया और मंदिर के आस-पास की भूमि पर कब्जा कर लिया।

19वीं शताब्दी

बर्मा का संवर्धन (1810 ईस्वी):

बर्मा के अलम्पोरा और मांडले के राजाओं ने महाविहार का संवर्धन करवाया। इससे यह स्थान फिर से तीर्थस्थल के रूप में उभरा और बौद्धों के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बना।

बर्मा का शिष्टमंडल (1823 ईस्वी):

बर्मा के राजा ने एक शिष्टमंडल भेजकर महाविहार में पूजा की व्यवस्था करवाई। बर्मा सरकार ने लंबे समय तक पूजा का खर्च वहन किया और एक धर्मशाला व दो विहार बनवाए। बाद में महंत ने इन्हें अपने मठ में शामिल कर लिया।

आधुनिक काल (19वीं शताब्दी - वर्तमान)

19वीं शताब्दी

अलेक्जेंडर कनिंघम का सर्वेक्षण (1861 ईस्वी):

मेजर जनरल सर अलेक्जेंडर कनिंघम, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संस्थापक थे, ने महाविहार का सर्वेक्षण किया और ब्रिटिश सरकार को इसके जीर्णोद्धार की आवश्यकता के बारे में चेताया। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि ब्रिटिश सरकार ऐसा नहीं करती, तो फ्रांस या पुर्तगाल जैसे देश यह临 यह कार्य कर सकते हैं।

जीर्णोद्धार की शुरुआत (1862 ईस्वी):

कनिंघम ने महाविहार के पुनर्स्थापना कार्य की नींव रखी। इस दौरान खुदाई और मरम्मत कार्य किए गए, जिससे मंदिर की मूल संरचना को पुनर्जीवित किया गया।

सर एडविन अर्नोल्ड का योगदान (1879-1886 ईस्वी):

सर एडविन अर्नोल्ड ने अपने ग्रंथ लाइट ऑफ एशिया (1879) के माध्यम से बौद्ध धर्म और बुद्धगया को पश्चिमी दुनिया में लोकप्रिय बनाया।

1885 में, डेली टेलीग्राफ के चीफ एडिटर के रूप में, उन्होंने बुद्धगया की दयनीय स्थिति पर लेख लिखे, जिसने श्रीलंकाई बौद्ध सुधारक अनागारिक धर्मपाल को प्रेरित किया।

1886 में, अर्नोल्ड ने बुद्धगया का दौरा किया और वहाँ की दुर्दशा देखकर ब्रिटिश वाइसराय को पत्र लिखा। उन्होंने सीलोन के गवर्नर को सुझाव दिया कि मंदिर की देखरेख बौद्ध भिक्षुओं को सौंपी जाए।

अनागारिक धर्मपाल का अभियान (1891-1896 ईस्वी):

1891 में, धर्मपाल ने कोलंबो में महाबोधि सोसाइटी की स्थापना की और बुद्धगया की स्थिति सुधारने के लिए अभियान शुरू किया।

1893 में, वे विश्व धर्म संसद में भाग लेने के लिए शिकागो गए और अर्नोल्ड के साथ लॉर्ड किम्बरली से मिले। हालाँकि, ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं की भावनाओं का हवाला देकर हस्तक्षेप से इनकार कर दिया।

1896 में, जापानी बुद्ध प्रतिमा को भारतीय संग्रहालय में स्थानांतरित करने के निर्णय का धर्मपाल ने विरोध किया, और भारतीय समर्थन से इसे बर्मी रेस्ट हाउस में पुनर्स्थापित किया गया।

20वीं शताब्दी

बोधगया मंदिर अधिनियम (1949 ईस्वी):

भारत की स्वतंत्रता के बाद, बोधगया मंदिर अधिनियम के तहत एक समिति बनाई गई, जिसमें चार हिंदू और चार बौद्ध सदस्य शामिल थे। यह समिति मंदिर के प्रबंधन और संरक्षण के लिए जिम्मेदार हुई।

प्रबंधन समिति की स्थापना (1953 ईस्वी):

28 मई को बोधगया मंदिर प्रबंधन समिति (BTMC) ने कार्य शुरू किया। इसका उद्देश्य महाविहार को संरक्षित करना, तीर्थयात्रियों की सुविधा सुनिश्चित करना, और मंदिर परिसर का रखरखाव करना था।

21वीं शताब्दी

वर्तमान प्रबंधन (2023 ईस्वी):

26 जुलाई को BTMC के वर्तमान सदस्यों को तीन साल के लिए नियुक्त किया गया। यह समिति महाविहार के संरक्षण और रखरखाव को प्राथमिकता देती है और नियमित रूप से बैठकें आयोजित करती है ताकि विकास कार्यों और सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित किया जा सके।

वैश्विक मान्यता:

2002 में, यूनेस्को ने महाबोधि महाविहार को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया, जिसने इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक महत्व को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दी।

अतिरिक्त महत्वपूर्ण बिंदु और घटनाएँ

बुद्ध प्रतिमा की सुरक्षा:

13वीं शताब्दी में तुर्की आक्रमणों से बचाने के लिए भिक्षुओं ने मुख्य बुद्ध प्रतिमा के सामने दरवाजे को ईंटों से बंद कर प्लास्टर किया और बाहर शिव की मूर्ति बनाई। यह एक चतुर रणनीति थी, जिसने आक्रमणकारियों को भ्रमित कर प्रतिमा को नष्ट होने से बचाया।

बर्मा का दीर्घकालिक योगदान:

बर्मा के राजाओं और जनता ने 10वीं से 19वीं शताब्दी तक महाविहार के जीर्णोद्धार और संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 19वीं सदी में बर्मा सरकार ने पूजा और रखरखाव का खर्च भी वहन किया, और आज भी बर्मा के बौद्ध महाविहार को विशेष सम्मान देते हैं।

अर्नोल्ड और धर्मपाल का संयुक्त प्रयास:

सर एडविन अर्नोल्ड ने बुद्धगया को बौद्धों को सौंपने के लिए ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला, जबकि अनागारिक धर्मपाल ने कानूनी और सामाजिक अभियान चलाया। हालाँकि, ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं की भावनाओं का हवाला देकर हस्तक्षेप नहीं किया, और महंत का नियंत्रण बना रहा।

महाविहार का धार्मिक महत्व:

महाबोधि महाविहार न केवल बौद्धों के लिए, बल्कि दुनिया भर के लोगों के लिए एक पवित्र स्थल है। यहाँ की मुख्य बुद्ध प्रतिमा, जिसे वज्रासन मुद्रा में दर्शाया गया है, को भगवान बुद्ध की सजीव प्रतिमा माना जाता है।

वर्तमान में महाविहार:

आज महाबोधि महाविहार एक जीवंत तीर्थस्थल है, जहाँ दुनिया भर से तीर्थयात्री आते हैं। BTMC द्वारा इसका संरक्षण और प्रबंधन किया जाता है, और यहाँ नियमित रूप से धार्मिक अनुष्ठान और प्रार्थनाएँ आयोजित की जाती हैं।

यह विस्तृत वर्णन महाबोधि महाविहार के इतिहास को प्राचीन काल से वर्तमान तक कवर करता है। इसमें इसके निर्माण, विकास, विनाश, और पुनर्स्थापना की प्रमुख घटनाएँ और विभिन्न शासकों, समुदायों, और व्यक्तियों के योगदान शामिल हैं। विशेष रूप से, राजा पूर्ण वर्मा का योगदान, जिन्होंने 7वीं शताब्दी में बोधि वृक्ष को पुनर्जनन और संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए, इस इतिहास का एक अभिन्न अंग है। 

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