बहुजन समाज के लोगों के स्वाभिमान पर चोट?

अखिलेश यादव के "अपने" और "तब भी अपने" लोगों के बीच, उदारता रूपी चेहरे की सच्चाई

मनोज मानव

अखिलेश यादव का संसद में दिया गया बयान कि "हम आपको तब भी अपना मानते हैं, जब आप हमारे कई ग्रंथों, पुराणों, उपनिषदों को नहीं मानते हैं, मगर सोचो हम हिंदू वो लोग हैं जो आपको गले लगाकर चलते हैं," न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि यह बयान बहुजन समाज के लोगों के स्वाभिमान पर चोट है। इस बयान ने अपने-पराये अखिलेश यादव के असली इरादों और सोच को पर्दाफांस कर दिया है। 

अखिलेश यादव के इस बयान में उनके "अपने" वे लोग हैं, जो ग्रंथों, पुराणों, उपनिषदों को मानते है और दूसरे वे जो तथागत बुद्ध, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, और मान्यवर कांशीराम जैसे महापुरुषों के विचारों को मानने वाले गैर-मनुवादी बहुजन समाज के लोग, ये दूसरे प्रकार के "तब भी अपने" लोग हैं, यह कहकर इन्होने अपने व्यक्तव्य में बहुजन समाज को स्पष्ट रूप से न सिर्फ दो हिस्से में बाँट दिया बल्कि एक बड़ी खाई पैदा कर दी, एक वे जो "अपने लोग" जो ग्रंथों को मानते हैं और दूसरे वे जो नहीं मानते जिन्हें "तब भी अपना" कहकर बहुजन समाज पर बहुत बड़ा एहसान करते हुए अपने को पेश किये है। 
इस बयान के जरिए अखिलेश यादव ने अपनी मानसिकता स्पष्ट कर दी है। 

उनकी यह शब्दावली बताती है कि वे इन महापुरुषों और उनके अनुयायियों को, जिन्होंने सदियों तक मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ी, अपना सच्चा साथी नहीं मानते। इसके बजाय, वे इन्हें "दया के पात्र" बनाकर अपनी उदारता का ढोंग रचते हैं। यह सोच कतिपय उनकी उस राजनीतिक चाल को उजागर करती है, जो वोट बैंक के लिए किसी भी हद तक जा सकती है!

अखिलेश यादव अक्सर यह दावा करते हैं कि जब वे मुख्यमंत्री थे, तो सरकारी आवास छोड़ने के बाद उसे गंगाजल से धोया गया, क्योंकि वे शूद्र हैं। लेकिन गैर-मनुवादी बहुजन समाज अब सवाल उठा रहा है? आप कौन से शूद्र हैं? जो न तो हमारे साथ फिट बैठते हैं, न ही मनुवादी व्यवस्था का हिस्सा हैं। 

अखिलेश यादव का ही बयान है कि उन्हें तो खाने के लिए बर्तन लेकर जाना पड़ता है..., तो क्या वे ऐसे शूद्र हैं, जो जरूरत पड़ने पर "शूद्र" का कार्ड खेलकर सहानुभूति बटोरते हैं और मौका मिलते ही बहुजन समाज को "तब भी अपना" कहकर किनारे कर देते हैं? यह दोहरा चरित्र उनके राजनीतिक लाभ के लिए धोखे का सबूत है। 

एक तरफ वे "गले लगाने" की बात करते हैं, दूसरी तरफ "एहसान" जताने की मानसिकता रखते हैं, यह साफ करता है कि उनका मकसद बहुजन समाज की भलाई नहीं, बल्कि सिर्फ सियासी फायदा है। 

इस बयान से उन्होंने यह जता दिया कि बौद्ध धर्म और अम्बेडकरवादी विचारों को मानने वालों के लिए उनकी राजनीति में कोई जगह नहीं है। 
हालांकि, इतिहास गवाह है कि कई ग्रंथ बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं, फिर भी अखिलेश यादव ने गैर बहुजन समाज को बांटने का प्रयास किया। हमने उन्हें अपना माना, उनके साथ खड़े होने को तैयार थे, लेकिन उनके शब्दों ने यह भ्रम तोड़ दिया है। 

अखिलेश यादव की पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) की बातें अब खोखली हैं। यह बयान साबित करता है कि चाहे वे मुख्यमंत्री बनें या प्रधानमंत्री, वे कभी भी अम्बेडकरवादी विचारधारा और बहुजन समाज के सच्चे हितैषी नहीं होंगे। 

जन्म, रक्त, कुल और वंश के आधार पर बहुजन समाज ने उन्हें अपना माना था, लेकिन उनके शब्दों ने इस भरोसे को तोड़ दिया। अब पीडीए के नाम पर समाज को भ्रमित करने की उनकी कोशिश नाकाम होगी। 

डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, "मैं जिस धर्म में पैदा हुआ, यह मेरे वश में नहीं था, लेकिन जिसमें मरूं, यह मेरे वश में है।" इस विचार को मानने वाले लोग अखिलेश यादव की दया के पात्र नहीं हैं। उनके बयान ने समाज को दो धाराओं में बांटने की कोशिश की है। 

उक्त बयान, अखिलेश यादव, व उनकी सोच को उजागर करने के साथ-साथ तथागत बुद्ध से लेकर मान्यवर कांशीराम तक के सामाजिक संघर्षो के प्रतिकूल और बहुजन समाज के लिए एक सबक भी है। 

हमें अब किसी के "तब भी अपना" जैसे शब्दों की जरूरत नहीं रखनी चाहिए और अपने सम्मान, स्वाभिमान और समानता के लिए, इस लड़ाई को अपने बल पर आगे बढ़ाने, अपने वैचारिक मिशन को भी किसी पीडीए रूपी हाथों में जाने से बचाना चाहिए। 

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