स्कूल एक बुनियादी राजनैतिक चेतना जगाने का संस्थान!
मंजुल भारद्वाज
स्कूल एक बुनियादी संस्थान है जहां आने वाली पीढ़ी को इतिहास, वर्तमान और आने वाली चुनौतियों से रूबरू कराया जाना अनिवार्य है। घटना क्रम के सभी आयामों को विश्लेषित कर नए सृजनशील परिदृश्य निर्माण करने के लिए राजनैतिक चेतना से बच्चों को ओतप्रोत करना रचनात्मक बदलाव का अहम सूत्र होना अनिवार्य है !
बिना राजनैतिक चेतना के शिक्षा निरर्थक है। बिना राजनैतिक चेतना के शिक्षा अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाती ! आज पूरी सत्ता ने शिक्षा के मूल उद्देश्य को भटका दिया है । पूंजीवादी सत्ता हो या साम्यवादी दोनो ने शिक्षा को अपने प्रोपगेंडा का माध्यम बना दिया है। पूंजीवादी ढांचे ने शिक्षा को सरकारों के हाथ से निकालकर निजी मुनाफाखोरों को सौंप दिया है। इन पूंजीवादी मुनाफाखोरों ने स्कूल को दुकान बना दिया है जहां जिसके पास पैसा है वो पूंजीवादी कचरे को खरीद सकता है। सबसे हैरानी और विध्वंसक बात यह की तथाकथित पढ़ा लिखा वर्ग इन दुकानों में अपने बच्चों को पूंजीवादी ढांचे में ग्राहक बनने के लिए भेजते हैं।
यह स्कूल की दुकानें अपनी मर्ज़ी से बोली लगाने वाले अंदाज़ में अपना कचरा मां बाप को बेचती हैं।
बच्चों के दिमाग को खरीदने और बेचने वाली मानसिकता से लैस करती हैं। बच्चे अपने मूल स्वभाव को विकसित करने की बजाय सड़े गले कचरे से भर लेते हैं। त्रासद यह है कि इस कचरे या विध्वंस को यह विकास कहते हैं!
इन पढ़े लिखे अनपढ़ ग्राहकों को इतनी बुनियादी बात भी नहीं पता की जिस बुलडोजर से पूरी प्रकृति का विनाश कर एअर कंडीशन वाली बिल्डिंग में जा बसे हैं या बसने वाले हैं वो इनके बच्चों को बर्बाद कर रही है। वो ना शरीर से स्वस्थ हैं , ना मन से वो व्यस्त हैं एक एनिमेटेड विनाशक दुनिया में जो उन्हें रोबोट बना रही है या बना दिया है। ऐसे बच्चों के मां बाप पाश्चात्य जीवन शैली के शिकार हैं। वो अमीर होने के न्यूनगंड के शिकार हैं। देश छोड़ विदेश में नौकरी करने जाते हैं वो ज़िंदगी भर कर्ज़ चुकाते रहते हैं बिना यह जाने कि वो पूंजीवादी शोषण व्यवस्था के शोषित प्राणी मात्र हैं पर किसी भी देश के नागरिक नहीं !
यह विध्वंस कितना विकराल है यह जानकर रूह कांप जाती है। अभी पूरी दुनिया ने व्यापार की होड़ में दो महाशक्तियों को जैविक हथियार से दुनिया को मरते देखा! कोरोना जैविक युद्ध का एक प्रयोग है। पर कहीं किसी देश में इसके खिलाफ़ कोई आंदोलन या कोई चर्चा कि यह क्यों हुआ? किसने किया?
क्यों दुनिया में इतने मासूम लोगों को मार दिया गया? यह चर्चा इसलिए नहीं होती क्योंकि ग्लोबलाइजेशन ने पूरी दुनिया में नागरिक होने की धारणा या संकल्पना को नष्ट कर सबको ग्राहक बना दिया है।
आज यूरोप की बात करें यहां वन तो हैं पर जंगल नहीं हैं ! जंगल क्यों नहीं हैं ? इस सवाल पर क्या कोई विचार कर रहा है, जी नहीं विकास का शगूफा लिए प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होने का इंतज़ार कर रही है यह तथाकथित विकसित कौम! अचानक बाढ़,या भारी बारिश का शिकार हो रहे हैं। पूंजीवाद का गढ़ अमेरिका कुदरती तबाही की चपेट में है।
पूरी दुनिया को पता है। हर देश का ग्राहक बैठकर सोशल मीडिया , टीवी में देखता है अरे अमेरिका में तूफान से तबाही , पर अमेरिकी भोगवाद पर चर्चा नहीं करता अपितु उसे अपने घर और देश में स्थापित करता है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तो झूठ का बोलबाला है। एक झूठा धूर्त अपने पूंजीपति मित्रों से जंगल कटवा कर पढ़ लिखे अनपढ़ों को मां के नाम पेड़ लगाने का स्वांग रच रहा है। त्रासदी यह कि यह मूर्ख ग्राहक उसके झूठ को सच मान अपने विविधता से भरे देश को बर्बाद कर रहे हैं। इस बरबादी को यह विकास मान रहे हैं!
यह विनाश क्यों हो रहा है क्योंकि स्कूलों में नागरिक होने के लिए अनिवार्य राजनैतिक चेतना बच्चों में नहीं जगाई जा रही। शिक्षक राजनैतिक शब्द से ऐसे बिधकते हैं जैसे लाल कपड़ा देख कर सांड! एक पूरी पीढ़ी को बर्बाद करने वाले शिक्षक नहीं हो सकते एक शोषणकारी व्यवस्था के गुलाम हैं।
हमें विश्व को बचाने के लिए, प्रकृति को बचाने के लिए,विश्व में ग्राहक नहीं नागरिक बनाने के लिए , मानवता को बचाने के लिए एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को बहाल करना होगा जो बच्चों को इंसान होने की बुनियादी राजनैतिक चेतना से सम्पन्न करे।
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