अहिल्याबाई होल्कर एक युग-निर्माता की अमर गाथा

मनोज मानव

भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में एक ऐसी महान हस्ती का नाम अंकित है, जिसने अपने पराक्रम, संवेदनशीलता और अटूट निष्ठा से न केवल अपने युग को प्रेरित किया, बल्कि आज भी हमें एक समृद्ध, समतामूलक और सशक्त भारत की रचना के लिए प्रेरणा देती है। 
अहिल्याबाई होल्कर, मालवा की पुण्यश्लोक रानी, केवल एक शासिका नहीं थीं, बल्कि सामाजिक समरसता की प्रतीक, सांस्कृतिक धरोहर की संरक्षक और सनातन धर्म की सच्ची प्रहरी थीं। 
उन्होंने मालवा को शांति और वैभव का स्वर्ण युग प्रदान किया, काशी विश्वनाथ और सोमनाथ जैसे पवित्र तीर्थों का पुनरुद्धार कर आध्यात्मिक चेतना को जीवंत किया, कुओं और बावड़ियों का निर्माण कर जनसामान्य के कल्याण को सुनिश्चित किया, और विधवाओं व समाज के उपेक्षित वर्गों को सम्मान व संरक्षण देकर सामाजिक न्याय का नया कीर्तिमान स्थापित किया। 

उनकी रणकौशल, प्रशासनिक दूरदर्शिता और परोपकारिता ने भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। आज, जब सरकार अयोध्या में राम मंदिर के भव्य निर्माण और कुम्भ मेले की वैश्विक महिमा जैसे ऐतिहासिक उपक्रमों के माध्यम से सनातन संस्कृति को पुनर्जनन की ओर ले जा रही है, अहिल्याबाई की यह अमर गाथा और अधिक सार्थक हो उठती है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व सेवा, समता और समाज के उत्थान पर आधारित होता है।

31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गाँव में अहिल्याबाई का जन्म हुआ। वे धनगर समुदाय से थीं, जिसे उस समय एक साधारण समुदाय माना जाता था। उनके पिता, माणकोजी राव शिंदे, गाँव के पाटिल और एक प्रगतिशील विचारक थे। 
उस दौर में भी, माणकोजी ने अहिल्याबाई को साक्षरता और ज्ञान प्रदान कराया। यह प्रारंभिक शिक्षा उनके जीवन का आधार बनी, जिसने उन्हें वह आत्मविश्वास दिया, जो बाद में उनके शासन और समाज सेवा में प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित हुआ। यह तथ्य आज भी हमें शिक्षा की परिवर्तनकारी शक्ति की याद दिलाता है, विशेष रूप से तब, जब सामाजिक बंधन प्रगति को बाधित करने का प्रयास करें।

आठ वर्ष की आयु में अहिल्याबाई का विवाह मराठा साम्राज्य के होल्कर वंश के खंडेराव होलकर से हुआ। यह विवाह उन्हें ग्रामीण परिवेश से राजसी वैभव तक ले गया। किंतु उनका जीवन कठिनाइयों से भरा था। 1754 में उनके पति खंडेराव युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। उस युग में विधवाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी, और समाज उन्हें हाशिए पर धकेलता था। फिर भी, अहिल्याबाई ने हार नहीं मानी। अपने ससुर, मल्हार राव होलकर, के संरक्षण में उन्होंने शासन की जटिलताओं को समझा और राज्य संचालन की जिम्मेदारी के लिए स्वयं को तैयार किया। यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रमाण है कि उन्होंने व्यक्तिगत दुख को अपनी शक्ति में परिवर्तित किया और समाज के कल्याण का मार्ग चुना।  
1766 में मल्हार राव के देहांत के पश्चात अहिल्याबाई मालवा की शासिका बनीं। यह वह समय था, जब एक महिला का, विशेष रूप से सामान्य समुदाय से आने वाली महिला का, इतना विशाल दायित्व संभालना असंभव प्रतीत होता था। किंतु अहिल्याबाई ने हर सामाजिक रूढ़ि को चुनौती दी। उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर बसे माहेश्वर को अपनी राजधानी बनाया और अपने शासन को शांति, समृद्धि और निष्पक्षता का प्रतीक बनाया। उनका यह कार्य हमें सिखाता है कि दृढ़ संकल्प और परिश्रम से कोई भी लक्ष्य असाध्य नहीं है। 
यह हमें यह भी स्मरण कराता है कि हमारी उत्पत्ति चाहे जो हो, यदि हमारे इरादे पवित्र और मजबूत हैं, तो हम समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।  
अहिल्याबाई का शासन मालवा के इतिहास में एक वैभवशाली युग के रूप में स्मरण किया जाता है। उनका नेतृत्व पराक्रम और संवेदनशीलता का अनुपम संगम था। वे न केवल एक शासिका थीं, बल्कि एक रणनिपुण योद्धा और प्रखर प्रशासक भी थीं। उन्होंने स्वयं युद्धक्षेत्र में सेना का नेतृत्व किया और अपने देवर, तुकोजी राव होलकर, को सेनापति नियुक्त किया। उनकी युद्ध नीतियों ने मालवा को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रखा और राज्य की सीमाओं को अक्षुण्ण बनाए रखा। 
उस समय, जब युद्ध और अस्थिरता सर्वत्र थी, अहिल्याबाई ने अपने सैन्य कौशल से राज्य को स्थायित्व और सुरक्षा प्रदान की और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी साहस और बुद्धिमत्ता से विजय प्राप्त की।

किंतु उनकी वास्तविक शक्ति उनके प्रशासन में थी। अहिल्याबाई प्रतिदिन अपने राजमहल में प्रजा की शिकायतें सुनती थीं। चाहे वह खेतिहर हो, व्यापारी हो या निर्धन विधवा, उनके द्वार सभी के लिए खुले थे। उनका शासन इस आदर्श पर आधारित था कि न्याय में कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए। 
वे यह सुनिश्चित करती थीं कि प्रत्येक व्यक्ति की बात सुनी जाए और उसकी समस्या का निवारण हो। उनकी यह जनकेंद्रित नीति ने मालवा को एक ऐसा राज्य बनाया, जहाँ लोग न केवल सुरक्षित थे, बल्कि समृद्ध भी थे।

अहिल्याबाई की नीतियों और कार्यों में उनकी गहन चेतना और मूल्य दृष्टिगोचर होते थे। उनके जीवन से हमें एक प्रेरक उपदेश प्राप्त होता है: "सच्चा शासन वह है, जो प्रजा के मन में विश्वास और सम्मान जागृत करे।" यह उपदेश उनके प्रशासन में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता था। वे मानती थीं कि शासक का कर्तव्य केवल नियम लागू करना नहीं, बल्कि लोगों के जीवन को समृद्ध करना है। उनकी यह विचारधारा आज भी प्रासंगिक है, जब हम समाज में एकता और विश्वास को सुदृढ़ करने का प्रयास कर रहे हैं।  
माहेश्वर, उनकी राजधानी, उनके शासनकाल में कला, साहित्य और वाणिज्य का केंद्र बन गया। नर्मदा के तट पर बसा यह नगर उनकी दूरदृष्टि का प्रतीक था। उन्होंने व्यापार को प्रोत्साहित किया, जिससे स्थानीय लोग आर्थिक रूप से सशक्त हुए। 
माहेश्वरी साड़ियाँ, जो आज भी अपनी शिल्पकला के लिए विख्यात हैं, उनकी नीतियों का परिणाम हैं। उन्होंने स्थानीय कारीगरों को संरक्षण दिया और उद्योगों को बल प्रदान किया। उनकी नीतियों ने मालवा को आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से एक समृद्ध क्षेत्र बनाया।

अहिल्याबाई की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उनकी परोपकारिता थी। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा समाज सेवा में समर्पित किया। भारत भर में सैकड़ों मंदिर, घाट, कुएँ और बावड़ियाँ उनके द्वारा निर्मित किए गए, जो उनकी सेवा भावना की गवाही देते हैं। 
काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी, और सोमनाथ मंदिर, गुजरात, जैसे तीर्थस्थलों का जीर्णोद्धार उनकी पहल से हुआ। ये निर्माण कार्य केवल धार्मिक महत्व तक सीमित नहीं थे, बल्कि इनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी प्रोत्साहन मिला। 
कुओं और बावड़ियों ने ग्रामीण क्षेत्रों में जल की उपलब्धता सुनिश्चित की, जिससे जनजीवन सुगम हुआ। तीर्थयात्रियों की आवाजाही से व्यापार और रोजगार के अवसर बढ़े। यह उनकी दूरदर्शिता थी कि उन्होंने धार्मिक कार्यों को सामाजिक और आर्थिक प्रगति से जोड़ा। आज सरकार भी इस पथ पर अग्रसर है। 
कुम्भ मेले को वैश्विक मंच पर गरिमा प्रदान कर, अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण कर, और सनातन संस्कृति को पुनर्जागृत कर सरकार हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने के साथ-साथ उसे आर्थिक और सामाजिक विकास का आधार बना रही है। जनवरी 2024 में अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा और कुम्भ मेला, जो लाखों श्रद्धालुओं को एकत्र करता है, अहिल्याबाई की तीर्थ और मंदिर निर्माण की परंपरा को जीवंत करते हैं।

माहेश्वर में भी उनकी अमिट छाप दिखाई देती है। उन्होंने इस नगर को साहित्यिक और औद्योगिक केंद्र के रूप में स्थापित किया। कला और शिल्प को बढ़ावा देकर उन्होंने स्थानीय कारीगरों को नया जीवन प्रदान किया। 
शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान सराहनीय था। उन्होंने विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों को संरक्षण दिया, ताकि उनके राज्य के लोग ज्ञान और कौशल से समृद्ध हों। उनकी नीतियाँ इतनी समावेशी थीं कि हर वर्ग किसान, व्यापारी या कारीगर, उनके शासन में फला-फूला।
  
अहिल्याबाई की परोपकारिता केवल निर्माण कार्यों तक सीमित नहीं थी। वे विधवाओं और निर्धनों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहती थीं। उस समय विधवाओं को सामाजिक सम्मान प्राप्त नहीं था, किंतु अहिल्याबाई ने उन्हें अपने पति की संपत्ति पर अधिकार प्रदान किया। कई बार वे स्वयं बच्चों को गोद लेने में सहायता करती थीं, ताकि विधवाएँ सामाजिक और आर्थिक रूप से सुरक्षित रहें। उनकी यह करुणा और सामाजिक समता की भावना उन्हें अपने युग से कहीं आगे ले जाती है। 
यह हमें स्मरण कराता है कि समाज का उत्थान तभी संभव है, जब हम कमजोर वर्गों को सशक्त करें।  
अहिल्याबाई के कार्यों से हमें एक और प्रेरक उपदेश मिलता है: "सच्ची शक्ति सेवा और सहानुभूति में निहित है, न कि केवल सत्ता या शस्त्र में।" 
यह उपदेश उनकी विधवाओं और निर्धनों के प्रति संवेदनशीलता में स्पष्ट रूप से झलकता है। वे मानती थीं कि एक शासक की वास्तविक ताकत उसके लोगों के प्रति उसकी दया और उनके जीवन को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता में होती है। यह विचार आज भी हमें प्रेरित करता है कि हमें अपने समाज में सबसे अधिक जरूरतमंद लोगों की सहायता करनी चाहिए।
  
अहिल्याबाई का जीवन सामाजिक सुधारों का एक जीवंत उदाहरण है। उन्होंने अपने शासन में जाति और लिंग आधारित भेदभाव को कम करने का प्रयास किया। उनका विश्वास था कि समाज का विकास तभी संभव है, जब प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान प्राप्त हो। यह विचार उस समय क्रांतिकारी था, जब समाज कठोर सामाजिक संरचनाओं में जकड़ा हुआ था। अहिल्याबाई ने अपने कार्यों से सिद्ध किया कि एक महिला न केवल शासन कर सकती है, बल्कि समाज को एक नई दिशा भी दे सकती है। उनकी यह सोच आज भी हमें प्रेरित करती है कि हमें अपने समाज में समता और समावेशिता को बढ़ावा देना चाहिए।  
उनके कार्य विशेष रूप से उन लोगों के लिए प्रेरणादायक हैं, जो समाज के उपेक्षित वर्गों से आते हैं। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर आज भी असंख्य लोग सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को पार कर रहे हैं। उनके कार्य आज के नेताओं के लिए एक आदर्श हैं कि कैसे समावेशी विकास और सामाजिक न्याय प्राप्त किया जा सकता है। अहिल्याबाई की नीतियाँ हमें सिखाती हैं कि नेतृत्व का आधार केवल शक्ति नहीं, बल्कि सेवा और करुणा होना चाहिए।  
अहिल्याबाई को "पुण्यश्लोक" की उपाधि दी गई, जिसका अर्थ है "वह जो पवित्र मंत्रों के समान पवित्र हैं।" यह उपाधि उनके जीवन और कार्यों का सटीक चित्रण करती है। उनकी विरासत आज भी मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में जीवित है। उनके द्वारा निर्मित मंदिर, घाट, कुएँ और बावड़ियाँ आज भी लोगों के लिए आस्था और प्रेरणा के केंद्र हैं। ठीक उसी प्रकार, आज हमारी सरकार अहिल्याबाई की विरासत को आगे बढ़ा रही है। अयोध्या में श्री राम मंदिर का निर्माण, जो जनवरी 2024 में भव्य प्राण प्रतिष्ठा के साथ उद्घाटित हुआ, कुम्भ मेला, जो विश्व स्तर पर भारत की आध्यात्मिक शक्ति को प्रदर्शित करता है, और अन्य ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों का पुनरुद्धार कर सरकार हमारी सनातन संस्कृति को नई ऊँचाइयों तक ले जा रही है। ये कार्य न केवल हमारी आध्यात्मिक धरोहर को सुदृढ़ करते हैं, बल्कि पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देकर लाखों लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी सृजित करते हैं। यह अहिल्याबाई की उस दूरदृष्टि का विस्तार है, जिसने धार्मिक और सामाजिक कार्यों को प्रगति के साथ जोड़ा था।
आज, जब हम 21वीं सदी में एक समृद्ध और समावेशी भारत का सपना देख रहे हैं, अहिल्याबाई का जीवन हमारे लिए एक दीपस्तंभ है। वे हमें सिखाती हैं कि सच्चा नेतृत्व वही है, जो समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चले। उनकी नीतियाँ, जो शिक्षा, उद्योग और सामाजिक कल्याण पर केंद्रित थीं, आज भी प्रासंगिक हैं। हमारा देश आज कई चुनौतियों का सामना कर रहा है- निर्धनता, असमानता और सामाजिक भेदभाव अभी भी हमारे सामने हैं। किंतु अहिल्याबाई का जीवन हमें यह विश्वास दिलाता है कि इन समस्याओं का समाधान संभव है, बशर्ते हम उनके जैसे समर्पण और करुणा के साथ कार्य करें।
उनका सैन्य नेतृत्व हमें सिखाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी साहस और रणनीति से विजय प्राप्त की जा सकती है। उनका प्रशासनिक कौशल हमें बताता है कि जनता की सेवा ही शासन का सच्चा उद्देश्य है। और उनकी परोपकारिता हमें स्मरण कराती है कि सच्ची समृद्धि तभी संभव है, जब हम समाज के कमजोर वर्गों को सशक्त करें। यह हमें प्रेरित करता है कि हमें अपने समाज में सबसे अधिक जरूरतमंद लोगों की सहायता करनी चाहिए।  
अहिल्याबाई होल्कर का जीवन एक ऐसी महिला का जीवन है, जिसने अपने समय की हर सीमा को तोड़ा और समाज को एक नई दिशा प्रदान की। उनका जीवन हमें सिखाता है कि नेतृत्व का आधार शक्ति नहीं, बल्कि सेवा और समता की भावना है। 
आज, जब हम अपने देश को प्रगति के पथ पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं, हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि समाज का उत्थान तभी संभव है, जब हम सब मिलकर कार्य करें और प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और अधिकार प्रदान करें।  
अहिल्याबाई की विरासत हमें यह भी सिखाती है कि अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को संरक्षित करना कितना महत्वपूर्ण है। 
आज हमारी सरकार उनके इस दृष्टिकोण को अपनाकर सनातन संस्कृति को न केवल जीवित रख रही है, बल्कि उसे विश्व मंच पर गौरव प्रदान कर रही है। राम मंदिर का निर्माण, कुम्भ मेला की भव्यता, और अन्य सांस्कृतिक प्रकल्प हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि हम अपने गौरवशाली अतीत को भविष्य की नींव बना सकते हैं। 
यह हम सभी के लिए एक आह्वान है कि हम अहिल्याबाई के कार्यों और उनके उपदेशों से प्रेरणा लें। हमें एक ऐसा भारत गढ़ना है, जहाँ हर व्यक्ति, चाहे उसकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो, सम्मान और समृद्धि के साथ जीवन बिताए।  
अहिल्याबाई होल्कर केवल एक शासिका नहीं थीं, बल्कि एक प्रेरणा थीं, एक आदर्श थीं और एक ऐसी शक्ति थीं, जिसने अपने कार्यों से इतिहास को परिवर्तित किया। उनकी विरासत को जीवित रखना हमारा दायित्व है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण कर सकें। 
आइए, हम सब मिलकर उनके सपनों को साकार करें और एक ऐसे भारत का निर्माण करें, जो समृद्ध, समावेशी और न्यायपूर्ण हो।

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