राजनीति में गिरती शालीनता की दीवारें?

यह घटना न केवल एक राजनीतिक मर्यादा का लांघन है, बल्कि सार्वजनिक संवाद की शुचिता पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।

सपा मीडिया सेल ने अपने आधिकारिक सोशल मीडिया मंच से एक ऐसा वक्तव्य जारी किया, जिसमें ब्रजेश पाठक के ‘डीएनए’ की जांच और उनकी मां के संदर्भ में आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग किया गया। 

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी सार्वजनिक पदाधिकारी की आलोचना स्वाभाविक और आवश्यक है, लेकिन जब यह आलोचना व्यक्तिगत, विशेषकर पारिवारिक स्तर पर उतर आए, तो यह न केवल असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा होती है, बल्कि राजनैतिक विमर्श को भी निम्नतम स्तर पर ले जाती है।

क्या राजनीति का अर्थ अब केवल विरोधी को हर कीमत पर नीचा दिखाना रह गया है? लोकतंत्र में विरोध आवश्यक है, पर वह वैचारिक और नीतिगत हो। 

जब राजनीति में निजी जीवन, विशेषकर दिवंगत परिजनों को लक्षित किया जाता है, तब वह समाज को द्वेष, अपमान और असहिष्णुता की ओर धकेलती है। 

यह घटना बताती है कि कैसे सोशल मीडिया, जो जनमत निर्माण का सशक्त माध्यम होना चाहिए था, आज पार्टियों की "ट्रोल सेना" का औजार बन चुका है।

इस पूरे घटनाक्रम में उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत संयमित और वैचारिक रही। उन्होंने सपा को समाजवाद की परंपरा की याद दिलाई, और यह भी कहा कि पार्टी ने इसे "गाली-गलौच की प्रयोगशाला" बना दिया है। 

यह वक्तव्य केवल एक राजनीतिक प्रहार नहीं, बल्कि गिरते राजनीतिक मूल्यों के प्रति चिंता भी प्रकट करता है।

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने प्रतिक्रिया में कहा कि ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होंगी, लेकिन उन्होंने भाजपा से भी संयम बरतने की बात कही। जब एक पार्टी की आधिकारिक मीडिया इकाई से इस प्रकार की टिप्पणी की जाती है, तो पार्टी नेतृत्व को स्पष्ट तथा कठोर रुख अपनाना चाहिए।

यह प्रश्न अब हर मतदाता के मन में उठना चाहिए — क्या हम ऐसी राजनीति को स्वीकार करते रहेंगे जो नीतियों की जगह निजी अपमान को अपना हथियार बनाए? 

यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम अपने नेताओं और पार्टियों से उच्च स्तर की नैतिकता, विचारशीलता और भाषा की मांग करें। राजनीति अगर समाज का आईना है, तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उसमें हमारे मूल्यों की छवि विकृत न हो

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