जब हम भागीदारी की बात करते हैं, तो हमें उसमें उपेक्षित समुदाय की मुक्ति कम और उनके नेताओं की निजी मुक्ति ज्यादा दिखाई देती है।
मिसाल के तौर पर स्वामी प्रसाद मौर्य को लीजिए। वह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में पिछड़े वर्गों के लिए ब्राह्मणवाद से मुक्ति का एक प्रमुख चेहरा हुआ करते थे। वह शुरू से कांशीराम के साथ रहे, और बसपा की सभी सरकारों में मंत्री रहे। किन्तु उनका समाज जिस तरह कल उपेक्षित था, उसी तरह आज भी है। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपनी और अपने परिवार की मुक्ति के सारे साधन हासिल कर लिए।
बसपा कमजोर हुई, तो तुरंत उन्होंने भाजपा से सौदेबाजी शुरू कर दी, और अपनी और अपनी बेटी दोनों की मुक्ति निश्चित कर दी। यह मुक्ति मौर्य ने अपनी जाति के वोटों को बेचने की कीमत पर की।
व्यक्तिगत रूप से भाजपा के लिए मौर्य की कोई हैसियत नहीं थी, हैसियत थी उनकी जाति के वोटों की। चूंकि जनता जागरूक नहीं है, जिससे उनके नेता अपने हित में उसका इस्तेमाल करते हैं, इसलिए जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती रह जाती है, और नेताओं के महल खड़े हो जाते हैं। वह अपने धन-वैभव में इस कदर खोया रहता है कि उसे अपनी कौम के सामान्य दुख-दर्द भी दिखाई नहीं देते।
यही हाल केशव प्रसाद मौर्य का है। वह योगी की सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं, पर शायद ही अपनी कौम के उत्थान के बारे में कोई निर्णय लेने का उन्हें अधिकार है। इन दोनों मौर्यों ने अपने फायदे और अपनी मुक्ति के लिए अपनी कौम को भाजपा के हिंदुत्व से जोड़ दिया और इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि भाजपा का हिंदुत्व पिछड़ी जातियों को सामाजिक समरसता के अंतर्गत विकास का कोई अवसर नहीं देता।
इसी भाजपा और आरएसएस ने मंडल कमीशन के खिलाफ आंदोलन चलाया था और आरक्षण के विरुद्ध दलित छात्रावासों पर सवर्णों से हमले करवाए थे।
भाजपा ने महादलित और महापिछड़े का जो खेल खेला, उसे दलित-पिछड़ी जातियों के नेता नहीं समझ सके। भाजपा ने बड़ी कौशल से यह रणनीति बनाई और यह दुष्प्रचार किया कि आरक्षण का सारा लाभ अगड़ी दलित-पिछड़ी जातियों को मिल रहा है, जिसकी वजह से अन्य दलित-पिछड़ी जातियों का विकास नहीं हो पा रहा है। फिर क्या था, महादलित और महापिछड़ी जातियों में अनगिनत नेता पैदा हो गए, जो भाजपा के सुर में सुर मिलाकर अलग आरक्षण की मांग की राजनीति करने लगे। इनमें सबसे ज्यादा भ्रमित वाल्मीकि (मेहतर) समुदाय के लोगों को किया गया. रातोंरात उनके हितैषी बनकर कई नेता वाल्मीकियों को अलग आरक्षण के सवाल पर भाजपा के समर्थक हो गए।
भाजपा ने इनमें से कई नेताओं को पालना शुरू कर दिया। इनमें एक हुए बबन रावत, जिन्होंने बिहार में सफाई कर्मचारियों के बीच भाजपा के एजेंडे पर काम करना शुरू किया, और भाजपा ने खुश होकर उन्हें सफाई कर्मचारी आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया। बबन रावत की मुक्ति का रास्ता खुल गया, जो वह चाहते थे;
किन्तु सफाई कर्मचारी और वाल्मीकि समुदाय के कितने कष्ट उनकी मार्फत दूर हुए?
क्या ठेका-प्रथा उन्होंने खत्म कराई, जो सफाई कर्मचारियों के आर्थिक शोषण का सबसे क्रूर तंत्र है?
क्या गटर में काम करने के दौरान मरने वालों के लिए उन्होंने कोई राहत दिलवाई?
क्या उन्हें आरक्षण का वह लाभ मिला, जिसकी दुहाई दी जा रही थी?
क्या उनके शैक्षिक विकास की कोई अलग योजना बनाई गई?
ये तमाम सवाल हैं, जिनकी ओर से बबन रावत ही नहीं, उनके सरीखे सभी नेताओं ने अपने मुंह बंद कर लिए हैं। अगर वे मुंह खोलेंगे, तो अपने समुदाय के प्रति वफादारी का सबूत देंगे, लेकिन तब भाजपा उनको बर्दाश्त नहीं करेगी।
ऐसे ही लखनऊ के लालजी निर्मल हैं, जो अपनी मुक्ति के लिए भाजपा में जाकर योगी आदित्यनाथ के भक्त बन गए। उन्होंने बाकयदा योगी को दलित जातियों का मित्र घोषित किया, और अगली ही बार योगी ने उन्हें अनुसूचित जाति वित्त-विकास निगम का अध्यक्ष बना दिया।
अब वे मौन हैं, दलितों की समस्याएं अब उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। जिस दिन दलित उनकी प्राथमिकता में आएंगे, उनका हश्र भी वही होगा, जो दूध में पड़ी मक्खी का होता है।
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