गांव प्रकृति गोद में बसता!
पेड़ लगाओ, पेड़ लगाओ, पानी बचाओ से क्या हम पर्यावरण संरक्षण कर पाएंगे?
- मंजुल भारद्वाज
युद्ध अपने पंच तत्वों से चारों ओर हाहाकार, तबाही, विनाश का मंज़र है। कहीं आग, कहीं बाढ़, कहीं सूखे का आलम है। तापमान बढ़ रहा है। अतिवृष्टि, भूस्खलन और महामारी फैल रही है। जलवायु परिवर्तन हो गया है।
वैज्ञानिक युग में अपनी आयु बढ़ाने वाले मनुष्य के जीवन पर संकट क्यों मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन पर अरबों डॉलर खर्च करने के बाद भी दुनिया के सत्ताधीश वसुंधरा की वेदना समझ क्यों नहीं रहे?
प्रदूषण का विकराल संकट किसने पैदा किया? प्रकृति का संतुलन कौन बिगाड़ रहा है?
क्या पर्यावरण का मसला पेड़ लगाने और पानी का नल बंद करने से हल हो जाएगा? या हमें इकोलॉजी के मुद्दे को गंभीरता से मंथना होगा?
पर्यावरण का मुद्दा अकेला नहीं है। इससे मनुष्य की राजनीति, सामाजिकता, अर्थ और संस्कृति नाभि नाल की तरह जुड़ी हुई हैं।
मात्र पेड़ लगाओ, पेड़ लगाओ, पानी बचाओ से क्या हम पर्यावरण संरक्षण कर पाएंगे? आओ पर्यावरण से जुड़े सारे विषयों को समझें!
मनुष्य , प्राणी या पृथ्वी का हर सजीव पंच तत्व से निर्मित है। पंच यानी पांच का अर्थ है बहुत्व । इस बहुत्व का गूढ़ अर्थ है विविधता। जीवन के लिए सभी तत्वों का सह अस्तित्व संतुलन और समन्वय।
प्रकृति ने सुंदर विविध रचना की है। हर तत्व का अपना दायरा,शक्ति और विशेषता है। मिट्टी, हवा, पानी, अग्नि और अंतराल (आकाश - स्पेस) का अलग अस्तित्व है। लेकिन जीवन बनता है जब यह सभी तत्व एक साथ आते हैं। पंचतत्वों का सहअस्तित्व ही जीवन है। प्रकृति के मूल्य हैं विविधता, सहअस्तित्व, समन्वय और संतुलन। यही जीवन और प्रकृति का सौंदर्य शास्त्र है।
जैसे जैसे मनुष्य की चेतना जागी उसने हर तत्व पर एकाधिकार पाने की कोशिश की। हिमयुग से होते हुए पाषाण युग और आज के वैज्ञानिक युग तक। कैसे हिमखंडों में जीवन को बचाते हुए उसने बर्फ़ को पानी में बदला, पत्थरों से अग्नि का अविष्कार किया, हवाओं की दिशा अनुसार जीवन यात्रा और बचाव के सूत्र खोजे। बाकी सजीव प्राणियों और वनस्पति के साथ संघर्ष किया।
शिकार किया पेट भरने के लिए, कंद मूल खाए । पेड़ों के फलों को खाकर उसके बीज को फ़िर से पेड़ बनते देखा और इस प्रकिया को देखकर खेती करना सीखा।
खेती से मनुष्य ने एक स्थान पर रहना शुरू किया। उससे कबीले गांव में बदल गए और सहअस्तित्व के मूल्यों पर मनुष्य का सभ्य समाज विकसित हुआ।
मनुष्य ने शिकार किया पर जानवर ख़त्म नहीं हुए । पानी का उपयोग किया पर नदी झरने सूखे नहीं। अग्नि का उपयोग किया पर तबाही नहीं की । मिट्टी से अन्न उगाया पर मिट्टी बंजर नहीं हुई । आकाश में चमकते तारों को देखा और उससे गणना शुरू की । पृथ्वी और ग्रहों की गति को समझा ।
खेती के बाद ,पैदावार की लड़ाई ने संपति की संकल्पना को जन्म दिया और संपति पर अधिकार का युद्ध शुरू हुआ । यह युद्ध इतना भयावह था कि मनुष्य ने अपने जैसे दूसरे मनुष्य को दास बनाना शुरू किया । मुठ्ठी भर मनुष्यों ने बाकी मनुष्यों पर एकाधिकार जमाया । उनको गुलाम बनाया ,दास बनाया और मनुष्यों के साथ पशु की तरह या कहें उससे बदतर व्यवहार किया । जिसे सामंतवाद कहा जाता है।
सामंतवाद से मुक्ति के लिए औद्योगिक क्रांति हुई , औद्योगिक क्रांति से संपति कैपिटल यानी पूंजी में बदल गई। औद्योगिक क्रांति से पूंजी के साथ साथ साम्यवाद का जन्म हुआ। शासन की अलग अलग पद्धतियां व्यवहार में आईं। मनुष्य को अधिकारों का भान हुआ । शासन ने मनुष्य के मौलिक अधिकारों के सूत्रों पर आधारित राज्य व्यवस्था कायम किया।
पर मनुष्यों में एक कौम का जन्म हुआ जिसको हम सत्ताधीश या सत्ता संभालने वाले कह सकते हैं। यहां यह स्पष्टता होनी अनिवार्य है कि सत्ता और राजनीति अलग है। राजनीति मनुष्य कल्याण और सत्ता सूत्रों को संचालित करती है। राजनीति में सबका कल्याण निहित है। जबकि सत्ता में सत्ताधीशों का स्वार्थ निहित होता है।
इस कालक्रम में मनुष्य ने पहिए का आविष्कार किया । प्रकृति के रहस्यों को समझा। प्रकृति की प्रकियाओं के सूत्रों को जाना और उसे विज्ञान का नाम दिया । जिसे हर वस्तु नीचे क्यों गिरती है यानि गुरुत्वाकर्षण के नियम से आइंस्टाइन के e = mc2 तक !
इन वैज्ञानिक सूत्रों ने सत्ताधीशों को ताक़त दी और उन्होंने एकाधिकार के युद्ध में झोंक दिया । मनुष्य पर एकाधिकारवाद के विकार ने सत्ताधीशों को इतना पागल कर दिया कि उन्होंने प्रकृति पर एकाधिकार का युद्ध छेड़ दिया । पानी पर अधिकार, अग्नि के सूत्र से नरसंहारक अस्त्रों का निर्माण, ज़मीन पर अधिकार, हवा पर अधिकार, स्पेस पर अधिकार, जंगलों पर अधिकार ।
कहने का अर्थ है पूरी इकोलॉजी पर कब्ज़ा।
सत्ताधीशों ने इकोलॉजी पर कब्जे को बहुत बढ़िया नाम दिया विकास। सत्ताधीशों ने अपने सत्ता संचालन से ऐसा शिक्षा तंत्र गढ़ा की प्रकृति के विनाश को लोग सच में विकास समझ रहे हैं।
आज इसके उदाहरण हमारे सामने हैं कि कैसे तथाकथित शिक्षित मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण को उजाड़ रहा है और उसे विकास समझ रहा है।
दरअसल औद्योगिक क्रांति के बाद हुए मशीनीकरण ने गांवों को उजाड़ दिया। उसके बाद क्या नए गांव बसे? हां नए कस्बे,शहर और महानगरों का निर्माण हुआ क्यों? क्योंकि गांव प्रकृति गोद में बसता है।
प्रकृति से सीधा संबंध है। प्रकृति के साथ गांव सृजन करता है। खेती बाड़ी के साथ साथ ,जल, मिट्टी और जंगलों को संभाल कर रखता है। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था को चाहिए केवल मुनाफा। पूंजीवादी व्यवस्था ने शहरों का निर्माण किया जहां मनुष्य अपने श्रम की मजदूरी से जीवन यापन की हर वस्तु खरीदे और उसकी मजदूरी फिर से पूंजी में बदलती जाए ।
एक छोटा सा उदाहरण आज दंत मंजन/ पेस्ट तक महानगर में रहने वालों को खरीदना पड़ता है। जबकि गांव में पेड़ की एक छोटी सी लकड़ी यानी दातुन मुफ्त में मिलती है। और दातुन तोड़ने से कभी जंगल नष्ट नहीं हुए।
मनुष्य अपने लालच और एकाधिकारवाद के अधीन होकर प्रकृति को ललकार रहा है। बांध बना रहा है , जंगल नष्ट कर रहा है, नदियों का धारा प्रवाह मोड़ रहा है, कारखानों से नदियों में , भूगर्भ और वायुमंडल में रासायनिक ज़हर घोल रहा है । मुनाफाखोरी और भोग में अंधा हो ,पागल हुआ मनुष्य अपने पंच तत्वों को चुनौती दे उनसे युद्ध कर रहा है।
जंगलों को उजाड़ रहा है क्योंकि जंगल अपने अंदर खनिज संपदा लिए हुए हैं। बांध बना पानी से विद्युत बना प्रकृति के चक्र ,पहर यानी सुबह ,शाम,रात के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है । वो सूर्यास्त को नहीं मानता । मनुष्य ने कृत्रिम रोशनी से समय के ' पहर ' को निरर्थक बना दिया है । मनुष्य की ज़रूरत पूरा करने के लिए प्रकृति ने बिना विध्वंस के सब दिया है मनुष्य को पर लालच और श्रेष्ठतावाद का शिकार मनुष्य प्रकृति को तबाह कर रहा है।
आज विकास के नाम पर सत्ताघिश /भूमाफिया जंगलों को उजाड़ रहा है चाहे वो मुंबई का आरे जंगल हो या छत्तीसगढ़ का हसदेव जंगल । सत्ताधीश भावनाओं का दोहन करते हुए मां के नाम एक पेड़ लगाने का भी पाखंड करते हैं। पर वो मूर्ख भूल जाते हैं कि मनुष्य पेड़ लगा सकते हैं,पर जंगल नहीं बना सकते। जंगल प्रकृति बनाती है जिसमें जीवन चक्र का तत्व है।
दुनिया की एकमेव महाशक्ति युद्ध कर सकती है,स्पेस में सेटेलाइट भेज सकती है। पर अपने जंगलों में लगी आग नहीं बुझा सकती क्यों ? क्यों विकसित देशों में जंगल नहीं बचे ? थोड़े बहुत बचे हैं वो भी विलुप्त हो रहे हैं या उनमें आग लगाई जा रही है!
आज मनुष्य को यह समझना ज़रूरी है कि शेर, चीते, बाघ,हाथी,हिरन आदि सजीव प्राणियों को बचाना क्यों आवश्यक हैं? क्योंकि यह जंगल में जल,नदी,झरनों यानी पानी के स्त्रोतों को सुरक्षित,स्वच्छ और निर्मल रखते हैं। जंगल पृथ्वी के फेफड़े हैं। पेड़ सूर्य के ताप से हमें बचाते हैं। पर विकास और विज्ञान उन्माद में मनुष्य विवेक ज्ञान को खो बैठा है और पृथ्वी का विध्वंस कर रहा है।
आज पूरी दुनिया में अट्टालिकाओं में निवास करते शिक्षित मनुष्य के पास ना ज़मीन है ना आसमान वो अधर में लटका है। मशीन को ऊर्जा से संचालित किया जाता है। मशीन को ऊर्जा देने के लिए मनुष्य ने प्रकृति की सारी ऊर्जा को अपने कब्जे में लेने का युद्ध छेड़ रखा है। पर मनुष्य ऊर्जा और प्राण के फ़र्क को भूल गया । एनर्जी और प्राण के अंतर को समझना ज़रूरी है। मशीन में ऊर्जा होती है प्राण नहीं और मनुष्य में ऊर्जा और प्राण दोनों हैं।
यही फ़र्क है प्रकृति सृजित सजीव (मनुष्य और जीवों) और मनुष्य निर्मित मशीनों में।
आत्मघाती सत्ताधीशों ने मनुष्य की ऐसी कौम तैयार की है जो मशीन बन गई है उसमें ऊर्जा तो है पर प्राण नहीं हैं। विज्ञान आधारित टेक्नीक तो है पर विवेक ज्ञान नहीं । अगर होता तो वो अपने आसपास प्रकृति के विध्वंस को देख पाते । जिस विध्वंस को वो विकास कह रहे हैं , उसे समझ पाते । जिन विमानों में वो उड़ते हैं उनको बाढ़ में एयरपोर्ट पर तैरते हुए देख पाते। एयरकंडीशन कार को भस्म होते देख पाते। बेमौसम सूखे,बरसात ,आग और बाढ़ के प्रलय को समझ पाते। जलवायु परिवर्तन को रोक पाते।
मदर अर्थ के दर्द को समझ पाते। असल में मनुष्य पाखंडी है। वो जिसे पूजता है उसे ख़त्म कर देता है। वही वो मदर अर्थ के साथ कर रहा है। वसुंधरा का तापमान बढ़ रहा है। जिससे ओज़ोन परत में छिद्र हो गए हैं। हिमखंड पिघल रहे हैं और मनुष्य चांद और अन्य ग्रहों पर कब्ज़ा करने की होड़ में लगा हुआ है।
मनुष्य निर्मित महामारी में ऑक्सीजन ऑक्सीजन करता मर रहा है। दुनिया को शमशान, कब्रिस्तान बना रहा है, नरसंहारक अणु - परमाणु बमों के जखीरे पर बैठ कर खुद को वैज्ञानिक और आधुनिक बता रहा है।
गांधी जी ने ऐसे विकास और आधुनिकता को खारिज़ किया था और मनुष्य को विवेक ज्ञान का पथ दिखाया था।
मनुष्य पाखंड करता है। आज सत्ताधीश कौम सत्य पथ नहीं झूठ पर चलती है। यहां यह भी स्पष्ट है कि जनता ही सत्ताधीश है क्योंकि दुनिया में बहुतायत शासन लोकतांत्रिक हैं। पूंजीवाद आधारित हैं। साम्यवाद के नाम पर वीभत्स पूंजीवादी तानाशाही भी है जहां जनता को जनता होने का अधिकार नहीं । यह सभी प्रकृति के ख़िलाफ़ युद्ध में लिप्त हैं। अपनी जननी वसुंधरा के गर्भ को फाड़ रहे हैं। उसकी शाखाओं यानी पेड़ों को नोच रहे हैं। उसके फेफड़ों यानि जंगलों को नष्ट कर रहे हैं। उसका जीवन अमृत यानि पानी को ज़हर (प्रदूषित ) बना रहे हैं। उसकी सृजन शक्ति मिट्टी को बंजर बना रहे हैं। उसकी अग्नि को अस्त्रों में बदल विनाश कर रहे हैं। प्राणवायु यानी हवा को ज़हरीला बना दिया है।
कहने को तो तकनीक का सहारा लेकर मनुष्य की आयु तो बढ़ गई है पर क्या उसका जीवन बढ़ा ? हमें आयु और जीवन के फ़र्क को समझना होगा !
जहां सांस लेने के लिए हवा ना हो, पीने के लिए स्वच्छ पानी ना हो , निर्मल मिट्टी ना हो, प्रकृति की छांव ना हो क्या वो जीवन है?
हे मशीन बन चुके मनुष्य टीवी/ प्रचार माध्यमों में आते झूठे विज्ञापनों/ विकास से बाहर निकल। पानी चला जायेगा, लाइट के बटन बंद करो, पेड़ लगाओ से पर्यावरण संरक्षित होने वाला नहीं है। पर्यावरण तब संरक्षित होगा जब आप अपनी प्रकृति को संरक्षित करोगे । अपनी लालच और एकाधिकारवाद के विकार से बाहर निकलोगे।
आओ अपने पंच तत्वों से युद्ध बंद करें। प्रकृति के विविधता, समन्यव ,संतुलन और सहअस्तित्व के मूल्यों पर चलें।
आओ अपना विवेक ज्ञान जगा पर्यावरण, प्रकृति, पृथ्वी, मनुष्य, मनुष्यता के साथ साथ पूरी सजीव सृष्टि (पेड़ पौधे, पशु, प्राणी) को बचाएं।
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