सावन का वास्तविक इतिहास और सांस्कृतिक घोटाला
- अब तक आपलोगों ने सरकारों में घोटाले सुने होगें..
- सरकारी दफ्तरों मे घोटाले सुने या देखे होगें..
धरती के गर्भ से निकलने वाले अवशेष इस बात के प्रमाण हैं कि हमारा इतिहास कितना गौरवशाली था आज भी भारत के प्रचीन गावों नगरों के नामों में, मंगल गीतों में, लोक व्यवहार इत्यादि में तथागत बुद्ध के धम्म, की झलक दिखाई पडती है।
बात जब इतिहास की हो रही है तो इतिहास के पन्नो पर लगी धूल को साफ करने पर चीजें काफी स्पष्ट दिखाई पडती हैं।
सावन महीने पर पूर्व में संक्षिप्त में लिखा हूँ लेकिन आज विस्तार से एतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी बात रख रहा हूँ आपसे निवेदन है कि अपने अमूल्य समय में से 2 मिनट का समय निकालकर इस लेख को पूरा अवश्य पढें..
साथियों श्रमण वही है जो अकुशल को नष्ट करने के लिए श्रम करे, उसे श्रमण कहा जाता था/है।उन्ही श्रमण/श्रमणेर/भिक्षुओं के समूह/संघ को भिक्खु संघ के नाम से जाना गया।
तथागत बुद्ध के समय से वर्षा ऋतु के 3 महीनों को वर्षावास कहा जाता था।
वर्षावास में बौद्ध भिक्षु यात्रा छोड़कर एक ही स्थान (ज्यादातर बुद्ध विहार) में ठहरते थे इस समय भिक्खु संघ ध्यान साधना करते थे नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ अमत्यसेन के अनुसार सम्राट अशोक कालीन भारत में 92% आबादी बौद्ध हुआ करती थी चूंकि भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है।
उस समय के बहुसंख्यक (बौद्ध) खेती किसानी से जुडे हुए लोग रहे होगें, नेपाल की तराई से लेकर मगध, उत्तर पूरब तक, जब आज भी धान की खेती बहुतायत होती है तो उस समय इतने संसाधन इत्यादि नहीं रहे होगें।
कृषक लोग धान की रोपाई के बाद लगभग फ्री हो जाते थे जिन स्थानों पर भिक्खु वर्षवास करते थे, वहाँ पर उपासक/कृषक लोग आसानी से इकट्ठा हो जाते थे भिक्खु संघ को भोजन दान का प्रबंध कृषक/उपासक लोग करते थे बुद्ध विहारों में भिक्खु संघ द्वारा "धम्म सवन अर्थात धम्म श्रवण करना और उपासकों को धम्म सवन अर्थात धम्म श्रवण कराया जाता था" तथागत ने 38 मंगल में धम्म सवन/श्रवण को उत्तम मंगल बताया है।
कुल मिलाकर धम्म सवन अर्थात धम्म श्रवण (धर्म को सुनने की परम्परा) की परम्परा तथागत बुद्ध के समय शुरू हुई थी। लगभग 2500 वर्षों में भाषाओं का विकास हुआ, स्थितियां/ परिस्थितियाँ, संस्कृतियां बदलीं और उनके साथ शब्दों के मायने और परिभाषाएं बदल गयीं।
संस्कृतियों के बदलने से हमारे संस्कार भी बदलते चले गये..
"जो सवन/श्रवण (सुनना) था वो श्रावण/सावन कब बन गया पता ही नहीं चला और इस तरह संस्कृतियों के बदलने से हमारे संस्कार भी बदलते चले गये।"
कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, आइये भारत की प्रचीन, गौरवशाली विरासत को फिर से गले लगाएं, अंधविश्वास/पाखण्ड की व्यवस्था को कंधे पर ढोने से बेहतर है पुरखों के बताए धम्म रूपी मार्ग का अनुसरण करें अपना और राष्ट्र का कल्याण करें।
वर्षावास में भिक्खु संघ के रहने का समुचित प्रबंध करें, अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोजनदान करें और पावन भिक्खु संघ से धम्म सवन/श्रवण सुनकर धम्मलाभी बनें।
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